Mithila culture is full of diversity in terms of tradition, rituals and life style. These traditions and rituals have made this culture a distinct one.
Madhushravani festival is mostly celebrated in Mithilanchal region. It is a festival of serpent worship which is performed by newly married couples. This festival initiates the newly married girls into the worldly life. During this festival, elderly woman or bidkari narrate legends and stories every day. The brides visit their maternal homes where they fast and feast, dress up in all their finery and perform various pujas seeking a happy marriage.
During the festival of Madhushravani, newly married girls stay at their parent's home where they consume delicious foot, wear adorable dresses and observer the rituals.
Another distinctive feature about this festival is that women have to read different holy stories every day. Legends and stories related to Madhushravani festival are recited on the first and last day of the festival. With stories, the devotees also recite hymns as a tradition.On the last day, husbands present for the third time a vermillion powder as a souvenir. Before that, the bride is presented on the first and fourth day of the marriage.
None in any place in the world, people celebrate such a unique tradition.. With justifying traditional and religious values, this festival also portrays human values. We are celebrating this festival means preserve cultural heritage and identity of the people.
श्रावण कृष्ण पंचमी से मिथिलांचल का लोकपर्व जो कि सुहाग का अनोखा पर्व माना जाता है मधुश्रावणी व्रत शुरू हो गया है। यह पर्व मुख्यत 13 दिनों तक चलता है लेकिन जिस वर्ष अधिक मास यानि कि मलमास सावन में पड़े उस वर्ष मधुश्रावणी पर्व 45 दिनों तक मनाया जाता है और सावन में अधिक मास 19 वर्षों के बाद ही होता है। इस पर्व में मिथिला की नवविवाहिताएं अपने सुहाग की दीर्घायु के लिए बासी फूल से माता गौरी की पूजा करती हैं।
यह पर्व हर वर्ष श्रावण माह के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से शुरू होकर नागपंचमी तक चलता है। इस दिन कच्ची मिट्टी के हाथी पर शिव-गौरी तथा नाग-नागिन आदि की प्रतिमा को कोहवर के पास स्थापित कर पूजन करती है। इस पूजा में दूध, धान के लावा का विशेष महत्व है। इस पर्व में हर दिन के पूजन का अलग-अलग विधान तथा अलग-अलग दिन की अलग-अलग कथा भी पढ़ी और सुनीं जाती हैं। पूजन के बाद सुहागिनों को सुहाग सामग्री आपस में वितरित की जाती है। मैथिल ब्राह्मण समाज इस पर्व की धूम देखी जा सकती है। इस पर्व पर गांव में पारंपरिक देवी गीतों के स्वर गूंजते सुनाई पड़ते हैं।
इस व्रत के संबंध में धार्मिक मान्यता है कि मधुश्रावणी व्रत में पूजा के दौरान नवविवाहित महिलाएं अपने मायके जाकर वहीं इस पर्व को मनाती हैं। और इस व्रत-पूजन के उपयोग आने वाली सभी चीजें कपड़े, श्रृंगार सामग्री, पूजन सामग्री की व्यवस्था और विवाहिता की भोजन की चीजें भी ससुराल से ही आती है। इन दिनों माता पार्वती की पूजा का विशेष महत्व होता है। इन दिनों ठुमरी, कजरी गाकर देवी पार्वती को प्रसन्न किया जाता हैं तथा मधुश्रावणी की पूजा के बाद कथा पढ़ी और सुनीं जाती हैं। नवविवाहिता इस पूजन के माध्यम से अपने सुहाग की रक्षा के लिए कामना करती हैं।
इस पर्व में मैथिली साहित्य का भी बहुत विशेष महत्व है। प्रतिदिन होनेवाली पूजा में मैथीली फकरा जिसे मधुश्रावणी की बीनी कहा जाता है नवविवाहिता को सुनना ज़रूरी होता है.....
दोप दिपहर जाथु धरा ।
मोती-मानिक भरथु घरा ।।
नाग बढ़थु नागिन बढ़थु ।
पाँच बहिन बिसहरा बढ़थु ।।
बाल बसन्त भैया बढ़थु ।
डाढ़ी-खोढ़ी मौसी बढ़थु ।।
आशावरी पीसी बढ़थु ।
बासुकी राज नाग बढ़थु ।।
बासुकिनी माए बढ़थु ।
खोना-मोना मामा बढ़थु ।।
राही शब्द लए सूती ।
काँसा शब्द लए उठी ।।
होइत प्रात सोना कटोरामें दूध-भात खाइ ।।
साँझ सूती प्रात उठी,
पटोर पहिरी कचोर ओढ़ी ।।
ब्रह्माक देल कोदारि,
विष्णुक चाँछल बाट ।
भाग-भाग रे कीड़ा-मकोड़ा ।
ताही बाट आओताह ईश्वर महादेव,
पढ़ल गरुड़ के ढ़ाठ ।
आस्तिक, आस्तिक, गरुड़, गरुड ।।
(आलेख : प्रियंका झा, सीतामढ़ी, बिहार )
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