तू जो अपना मुझको समझे मेरा एतबार भी कर,

है जहाँ ख़राब ख़ुद को ज़रा होशियार भी कर।

मैं सुनूंगा पास आकर तेरी दास्ताने दिल को,

तू उदास कर न ख़ुद को मेरा इंतज़ार भी कर।

कभी इस जहाँ को उल्फ़त न किसी की रास आई,

न छुपा सके जो इसको तो न आश्कार भी कर।

ये महब्बतों का दरिया न हदों को तोड़ डाले,

तू किनारा बन के इसपर ज़रा इख़्तियार भी कर।

कभी आ क़रीब मेरे कोई रात साथ बीते,

न ये आम शब सी गुज़रे इसे यादगार भी कर।

हो गिला कोई तो कहना न गुज़र पे छोड़ देना,

न कभी रहेगी ख्वाहिश के तू दिल पे वार भी कर।

रहे 'दीप' का उजाला तेरा साथ नूर हो तो,

न हमारी हो जुदाई ये सनम क़रार भी कर।

ग़ज़लकार: -

जितेंदर पाल सिंह 'दीप'

आश्कार: खुल्लम खुल्ला, ज़ाहिर



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